कुषाण वंश- कनिष्क-राज्य विस्तार,धार्मिक नीति,कुषाण काल में कला और साहित्य
परिचय:-
भारत में मौर्य साम्राज्य के पतन के पश्चात शुंग और कण्व वंश का साम्राज्य स्थापित हुआ |सातवाहनों के विघटन के बाद कुषाण वंश का अधिपत्य स्थापित हुआ, कुषाण विदेशी थे| इनके मूल और प्राचीन इतिहास का पता चीन ग्रंथों से मिलता है| इसके अनुसार कुषाण यू- ची जाति की शाखा के थे|यू- ची खानाबदोश थे एवं आधुनिक चीन के सामंत प्रदेशों में रहते थे|यू- ची अब कुषाण कहलाने लगे|
कुषाण वंश का पहला शासक कुजुल कडफिसस प्रथम था| वह बहुत शक्तिशाली और महत्वकांक्षी राजा था| उसका साम्राज्य अफगानिस्तान ,ईरान का पूर्वी छोर तथा भारत के उत्तरी पश्चिमी सीमा प्रांत के पर्वतीय प्रदेश में फैला था|कडफिसस प्रथम का पुत्र कडफिसस द्वितीय (विमा कडफिसस ) था| वह अपने पिता की तरह योग्य ,महत्वकांक्षी एवं उत्साही था| उसने भारत के आंतरिक भागों में साम्राज्य विस्तार की नीति को कायम रखा| चीनी लेखकों ने उसे ‘भारत का विजेता ‘लिखा है| यह उसके सिक्कों के अध्ययन से पता चलता है कि उसने हिंदू धर्म स्वीकार कर लिया था| उसके सिक्कों पर महेश्वर लिखा मिलता है और उन पर एक ओर शिव और नंदी की आकृति खुदी है इससे उनका से होना प्रमाणित होता है|
प्रमुख शासक कनिष्क:-
टॉमस,फर्गुसन तथा बनर्जी आदि विद्वानों के अनुसार कनिष्क शक संवत का प्रवर्तक था, जिसका प्रारंभ 78 ईसवी से होता है| चीनी इतिहासकारों के कथाअनुसार स्पष्ट होता है कि शक संवत का प्रवर्तक कनिष्क ही था| इस प्रकार कनिष्क का शासनकाल 78 तथा 125 ईसवी के बीच होना अधिक मालूम होता है|
जिस समय कनिष्क सिंहासन पर बैठा, उस समय कुषाण साम्राज्य मध्य एशिया अफगानिस्तान तथा पश्चिम उत्तर भारत में फैला हुआ था, इसलिए सभी आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए उसने पुरुषपुर( पेशावर ) को अपनी राजधानी बनाया था| प्राचीन भारतीय साम्राज्यवादी राजाओं में कनिष्क को एक विशिष्ट स्थान प्राप्त है| वह बहुत योग्य और वीर राजा था| उसने भारत के भीतर ही नहीं, बल्कि बाहर भी आक्रमण करके अनेक विजय हासिल की| उसने उतरी सिंध और कश्मीर पर विजय प्राप्त की तथा वहां कुछ नए नगर की स्थापना की| उसने उत्तर प्रदेश और बिहार पर भी आधिपत्य स्थापित किया और स्वयं अपनी सेना सहित पाटलिपुत्र पहुंचा| यही उसकी बौद्ध दार्शनिक अश्वघोष से मुलाकात हुई| कनिष्क उसके उपदेशों से इतना प्रभावित हुआ कि उसे अपने साथ अपनी राजधानी ले गया| उसके साम्राज्य की दक्षिणी सीमा नर्मदा नदी के तट तक जा पहुंची थी| उसकी मुद्राओं के मिलने के स्थानों तथा अभिलेखों से प्रतीत होता है कि सिंध, पंजाब, कश्मीर, उत्तर प्रदेश और बिहार आदि उसके विशाल साम्राज्य में शामिल थे|
कनिष्क का धर्म:-
कनिष्क चंद्रगुप्त मौर्य की तरह साम्राज्यवादी तथा अशोक और हर्ष की तरह एक धर्म प्रचारक भी था| वह भारतीय इतिहास में विजेता की अपेक्षा बौद्ध धर्म का अनुयाई होने के कारण भी विशेष रूप से प्रसिद्ध है| कनिष्क किस धर्म को मानने वाला था, यह हमें उसकी मुद्राओं से मालूम होता है| प्रथम कोटि की मुद्राएं हैं, जिन पर यूनानी देवता सूर्य तथा चंद्रमा के चित्र मिलते हैं| दूसरी कोटी की मुद्राएं हुए हैं, जिन पर ईरानी – देवता अग्नि के चित्र मिलते हैं उसकी तीसरी कोटी कि वे मुद्राएं हैं, जिन पर गौतम बुद्ध के चित्र मिलते हैं| आधार पर कुछ विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है कि कनिष्क पहले यूनानी धर्म को मानता था, उसके बाद उसने ईरानी धर्म स्वीकार कर लिया और अंत में वाह बौद्ध हो गया|
प्रारंभ में कनिष्क चाहे जिस धर्म को मान रहा हो, परंतु मगध विजय के उपरांत वह निश्चित रूप से बौद्ध हो गया| उसके सिक्कों पर यूनानी, ईरानी और हिंदू देवताओं के चित्र मिलते हैं| इन देवताओं के नाम इस प्रकार है- हेराक्लीज,सेरापीज , सूर्य ,चंद्र, शिव और अग्नि आदि| उसकी राज्यसभा में सभी धर्म के अनुयाई रहते थे| अशोक की भांति कनिष्क ने भी बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए प्रयत्न किए| अशोक के मृत्यु के बाद बौद्ध धर्म के विरुद्ध प्रतिक्रिया होने लगी थी और मौर्य साम्राज्य के अवशेष पर ब्राह्मण वंश का उदय होने लगा था| ऐसा लगता था कि बौद्ध धर्म समाप्त हो जाएगा, किंतु कनिष्क के प्रयत्न से उसमें नवजीवन का संचार हो गया| उसने कई विहारो एवं स्पूतों का निर्माण कराया| पुराने मठों की मरम्मत कराई| बौद्ध संस्थाओं को दान किया| बौद्ध धर्म के संबंध में विचार विमर्श करने के लिए कुंडलवन मे चौथी बौद्ध संगति बुलाई|
कनिष्का शासन प्रबंधन:-
कनिष्क के शासन प्रबंधन के विषय के बारे में पूरी जानकारी नहीं मिलती है| लेकिन इतना पता चलता है कि कनिष्क ने अपने साम्राज्य को प्रांतों में बांट कर रखा था| इन प्रांतों के प्रशासन के लिए क्षपतो को नियुक्त किया गया था| यह क्षपात कनिष्क के सरदार में से थे|
कनिष्का का कला और साहित्य प्रेम:-
कनिष्क के शासनकाल में कला एवं साहित्य का भी विकास हुआ| के समय में धर्म-निरपेक्ष और धर्म-सापेक्ष संस्कृत साहित्य की उच्च कोटि की रचनाओं का निर्माण हुआ| प्रसिद्ध रचनाएं ‘बुद्ध चरित्र‘ और ‘ सुत्रालंकार ‘ इसी काल ने रांची गई| बुद्ध चरित्र में महात्मा बुद्ध की कथा का वर्णन संस्कृत पदों में किया गया है| यह बुद्ध धर्म का महाकाव्य माना जाता है| इसके रचयिता अश्वघोष थे|
उसके काल में प्रसिद्ध विद्वान नागार्जुन भी हुए हैं| वह महायान मत का निर्गुण पंडित तथा शून्यवाद का प्रकांड विद्वान तथा दार्शनिक था| उसके शून्यवाद ने शंकराचार्य के मायावती को प्रभावित किया| वह एक वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी रखते थे| उसे ‘भारतीय आइंस्टीन ‘ भी कहा गया है|
वसुमित्र भी कनिष्क के साम्राज्य के प्रभावशाली विद्वान, दार्शनिक धर्माचार्य एवं वक्ता थे| यह प्रसिद्ध विद्वान ही चौथी बौद्ध सभा के अध्यक्ष थे| उन्होंने बौद्ध धर्म के त्रिपिटक पर ‘महाविभासासूत्र‘ नामक टीका लिखी, जिसे बौद्ध धर्म का शब्दकोश माना जाता है|
अन्य विद्वानों में पाशर्व व चरक थे| चरक ने ‘चरक संहिता’ ग्रंथ की रचना की थी| यह भारतीय आयुर्वेद की बहुमूल्य संपदा है|एक प्रसिद्ध राजनीतिज्ञ मंथर भी कनिष्क के दरबार में था|
कनिष्क के युग में अनेक विश्व प्रसिद्ध धर्म ग्रंथ, दर्शन ग्रंथ रचे गए| साथ ही अनेक अन्य कलाएं भी विकसित हुई| उसने अनेक सुंदर भवनों एवं नगरों का निर्माण करवाया| तक्षशिला के पास सिरमुख एवं कश्मीर के पास कनिष्कपुर बसाया, जिसे आजकल ‘सोपोर‘ कहा जाता है| पुरुषपुर मे उसके द्वारा बनवाया गया स्तंभ 13 मंजिलों का था| इस स्तंभ के पास ही एक बौद्ध विहार भी बनाया गया था| उसने मूर्तिकला को भी प्रोत्साहित किया| गंधार कला शैली में बुद्ध, बोधिसत्व और अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियां निर्मित की गई| इस काल मे मुद्रा कला भी
विकास हुआ| महात्मा बुद्ध के चित्र भीअनेक मुद्राओं पर पाए गए हैं|
कनिष्का अंतिम समय:-
कनिष्क की साम्राज्यवादी प्रकृति और निरंतर युद्ध के कारण उसके सैनिक, सेनापति, मंत्री तथा सभी अधिकारी उससे तंग आ गए थे| इसलिए उन्होंने कनिष्क की हत्या का षड्यंत्र रचकर उसका अंत कर दिया| 45 वर्ष तक शासन करने के बाद 123 ईस्वी मैं कनिष्क अपने ही लोगों के हाथों मारा गया|
कनिष्क के उत्तराधिकारी:-
वासिष्क ,कनिष्क के बाद वासिष्क राजा बना| मथुरा और सांची में उसके उत्कीर्ण लेख मिले हैं|कनिष्क द्वितीय,वासिष्क के बाद कनिष्क के सिंहासन पर बैठा| इसके बाद हुविष्क कुषाण सम्राट बना, हुविष्क ने कश्मीर में अपने नाम का एक नगर हुविष्कनगर बसाया था| इसके बाद वासुदेव कुषाण साम्राज्य का शासक बना| वह 145 ईसवी से 176 ईसवी तक राजा बना रहा| उसका उल्लेख मथुरा अभिलेख में मिले हैं|
कुषाण वंश के पतन का कारण:-
👉उत्तराधिकारीयों की अयोग्यता:- कनिष्क के उत्तराधिकारी निर्बल और कमजोर एवं दृढ़ इच्छा से विहीन थे| अतः वे इस साम्राज्य को संभाल नहीं सके|
👉साम्राज्य की विशालता:- कुषाण साम्राज्य नर्मदा नदी से लेकर मध्य एशिया तक फैला हुआ था| हिंदुकुश पर्वत भी इस साम्राज्य के अंतर्गत था |साम्राज्य की यह विशालता ही उसके पतन का कारण बनी| उसके अयोग्य शासक दूरस्थ स्थानों को संभाल नहीं पाए| कनिष्क के बाद विशाल साम्राज्य तितर-बितर हो गया|
👉विदेशी कारण:- कुषाण लोग विदेशी थे, अतः भारतीय प्रजा का उन पर पूरी तरह विश्वास और प्रेम नहीं था| अतः अंत में वे निरंतर आक्रमण से अपने राजतंत्र को सुरक्षित नहीं रख पाए| नागवंश और गुप्त वंश का उदय भी इसी काल में होने लगा था|
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FAQ:-
- Q कुषाण वंश के संस्थापक कौन थे?—-कुजुल कडफिसस
- Q कुषाण वंश के प्रतापी राजा कौन थे?—– कनिष्क
- Q कुषाण वंश के प्रथम और द्वितीय राजधानी कहां थी?—- पुरुषपुर और मथुरा
- Q कनिष्क ने 78 ईसवी में एक संवत चलाया जिसे भारत सरकार द्वारा प्रयोग में लाया जाता है?—- शक-संवत
- Q बौद्ध धर्म की चतुर्थ संगीति किसकी अध्यक्षता में हुई थी?—- वसुमित्र
- Q कनिष्क बौद्ध धर्म के किस संप्रदाय का अनुयाई था?—- महायान संप्रदाय
- Q कनिष्का राजवैद्य आयुर्वेद का विख्यात कौन था?—– चरक
- Q कुषाण वंश का अंतिम शासक कौन था?—– वासुदेव
- Q गांधार शैली एवं मथुरा शैली का विकास किसके शासनकाल में हुआ था?—– कनिष्क
- Q भारत का आइंस्टीन किसे कहा जाता है?—- नागार्जुन को